खूनी सुबह
उस दिन निकला जब सूरज
छा गया अंधेरा
सूरज निकलने की जगह
फैल गई लालिमा
सूरज नहीं
खून की.
उठे थे जो हथियार
सुनकर आह गरीबों की
तन गए गरीबों पर ही .
कहते थे जो खुद को
रहनुमा भूखों का ,
मसीहा बेबसों का ,
आखिर
क्यों
फ़टा उनका बारूद
मासूम गरीबों पर
जिनकी गलती केवल
इतनी थी कि
बैठे थे वे उसी बस में
जिसमें थे पुलिस वाले .
क्या छोड़ा नहीं जा सकता था
पुलिस वालों को
गांव वालों की जान के खातिर.
शायद नहीं
क्योंकि
दुश्मन तो थे पुलिस वाले पर
निरीह ग्रामीण उनके
दोस्त न थे
केवल मोहरे थे लड़ाई के
और
चालों में बड़ी बाज़ियों की
छोटे-छोटे मोहरों की
जान नहीं देखी जाती .